बाजीराव प्रथम…अजेय योद्धा और दूरदर्शी राजनेता.

आज 18 अगस्त के ही दिन सन 1748 में महाराष्ट्र के सिन्नर के नजदीक डुबेर गांव में भारत के महानतम सेनापति बाजीराव प्रथम का जन्म हुआ था। बाजीराव असाधारण रणनीतिज्ञ थे और अपने रणकौशल के बल पर संख्या में अपने से कहीं विशाल और बेहतर शस्त्रों से सज्जित शत्रु सेनाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते थे। यह उनका विलक्षण रणचातुर्य ही था कि पूरे जीवन में चालीस से भी अधिक लड़ाईयां लड़कर सभी में विजय प्राप्त की।

परन्तु सिर्फ रणनीतिक कौशल के पैमाने पर ही बाजीराव को आंकना इस विलक्षण व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं कर सकता। वस्तुत: असमान्य रणनीतिज्ञ होने के साथ साथ वे अत्यंत दूरदृष्टि वाले राजनेता भी थे। मात्र 20 वर्ष की आयु में जब बाजीराव को पेशवा पद के वस्त्र प्रदान कर उन्हे पेशवा नियुक्त किया गया तब जिस वर्तमान और भविष्य को वे देख पा रहे थे, वह अन्य लोगो को नजर आ नहीं रहा था। पेशवा पद पर नियुक्ति के समय उन्होंने जो भाषण छत्रपति शाहू महाराज के दरबार में दिया था, उसमे उन्होंने अपनी दूरदृष्टी का परिचय दे दिया था।

27 वर्षो तक मराठों के साथ सतत युद्धरत रहने के बाद अंततः1707 में औरंगजेब की महाराष्ट्र में मृत्यु हुई। यह 27 लंबे वर्षों का संघर्ष औरंगजेब और मुगलों को बहुत भारी पड गया। औरंगज़ेब के लिए यह अनपेक्षित था कि मराठे अपनी जमीन, अपनी अस्मिता और अपनी संस्कृति बचाने के लिए इतना कड़ा संघर्ष करेंगे और विराट मुगलिया फौज के सामने संख्या बल में कईं गुना कम होने पर भी पराजय स्वीकार नहीं करेंगे। इन 27 वर्षों ने औरंगजेब को पराजित तो किया ही, मुगलिया साम्राज्य की जड़े भी हिला दी। मुगलों का मनोबल बुरी तरह टूट चुका था। आर्थिक रूप से इस युद्ध ने उन्हें कंगाल कर दिया था। 27 वर्ष सम्राट राजधानी से दूर रहा था, जिसकी वजह से राजधानी में अव्यवस्था, अकर्मण्यता और आलस्य का वातावरण बन गया था। मुगल पिछले दो सौ वर्षों में इतने कमजोर नहीं हुए थे। औरंगजेब के उत्तराधिकारी भी अयोग्य और अय्याश थे। राजधानी में अव्यवस्था और अराजकता व्याप्त थी।

अपने संबोधन में इस परिस्थिति को रेखांकित करते हुए बाजीराव ने इस बात पर बल दिया अब समय आ गया है कि मराठे इस परिस्थिति का लाभ लेते हुए उत्तर भारत पर अपना प्रभाव बढ़ाए। अब तक मराठे नर्मदा– तापी के दक्षिण तक ही सिमट हुए थे और अपने क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों का लाभ लेते हुए स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए आक्रांताओं के हमलों का जवाब भर देते आ रहे थे। इस परिपेक्ष में, स्वयं आगे बढ़ कर उत्तर में मुगलिया साम्राज्य पर हमले करना एक महत्वकांक्षी और क्रांतिकारी परिवर्तन था। एक 20 साल का युवा लड़का, ऐसा स्वप्न देख रहा था जो उनके वरिष्ठ समकालीनों को मूर्खतापूर्ण धृष्टता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लग रहा था। परन्तु छत्रपति शाहू महाराज ने उस स्वप्नदर्शी युवा के पीछे का साहसी रणनीतिज्ञ, उत्कृष्ट संगठक और पराकाष्ठा का परिश्रमी सेनानायक भी पहचान लिया और अप्रत्याशित रूप से उसे ही अपना पेशवा नियुक्त कर लिया। आने वाले दो दशकों में बाजीराव ने यह सिद्ध कर दिया कि परिस्थिति का उनका आकलन तो सटीक था ही, उसका लाभ उठाने के लिए आवश्यक पराक्रम और चातुर्य भी उनमें कूट कूट कर भरा हुआ था। यह उनकी दूरदृष्टि का ही परिणाम था कि मराठे भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन गए और जब अहमद शाह अब्दाली का भारत पर आक्रमण हुआ तो दिल्ली से भी आगे उत्तर में पानीपत में मराठों ने ही उसे रोका था।

ऐसी ही दूरदृष्टि का परिचय बाजीराव ने नादिरशाह के आक्रमण के समय भी दिया था। नादिरशाह ने जब दिल्ली पर आक्रमण कर दिल्ली में कत्लेआम मचा रखा था, तब बाजीराव का रवैया महाराष्ट्र में बैठे रहने का या मुगलों के खतरे में होने पर उसका लाभ उठा कर अपने पैर फैलाने का नहीं था, बल्कि वे अपनी सेना लेकर महाराष्ट्र से निकल कर तापी के किनारे तक आ पहुंचे। नादिरशाह भी बाजीराव के रणकौशल से परिचित था और उसे यह समझ में आ गया कि बाजीराव से युद्ध महंगा पड़ जायेगा। वह दिल्ली में ही लूटपाट मचा कर पुनः ईरान लौट गया। यदि बाजीराव दबाव नहीं बनाते तो नादिरशाह शेष भारत में भी आतंक का तंत्र फैला कर भारत की तवारीख भी बदल सकता था।
दुर्भाग्य से बाजीराव 39 वर्ष की अल्पायु में ही बीमारी की वजह से गुजर गए परन्तु 20 वर्षों के अपने शासन काल में उन्होंने अपनी दूरदृष्टी और अद्भुत नेतृत्व क्षमता की वजह से इतिहास रच दिया। जिन मराठों का कार्यक्षेत्र सहयाद्रि की वादियों तक ही सीमित था, बाजीराव की नीतियों और पराक्रम की वजह से वे अफगानिस्तान की सीमाओं तक जाकर विजय प्राप्त कर आए और और करीब 150 वर्षों तक, मुगल बादशाह को नाममात्र का बादशाह बनाकर, सम्पूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य जमाने में सफल हुए।

आज 18 अगस्त को श्रीमंत बाजीराव पेशवा की जन्मतिथि पर सादर नमन।

श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर

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