राक्षसभुवन की लड़ाई!
राक्षसभुवन शब्द से यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि बात किसी पौराणिक युग की लड़ाई की है। वस्तुत: राक्षसभुवन महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र के बीड जिले में गोदावरी के किनारे पर बसा एक कस्बा है। वर्ष 1763 में 10 अगस्त को इसी स्थान पर एक निर्णायक लड़ाई में मराठों द्वारा निजाम को पराजित किया गया था।
लेकिन हमारी विजयगाथाएं हमें पढ़ाई कहां जाती हैं?
1720 में बाजीराव पेशवा के उद्भव के साथ ही मराठों की सतत विजय यात्राएं चल रही थी। स्वयं बाजीराव द्वारा 40 से भी अधिक युद्धों में विजय प्राप्त की गई तो उनके पश्चात, उनके पुत्र रघुनाथ राव ने मराठा राज्य की सीमाओं को उत्तर में अटक (आज के पाकिस्तान में अफगानिस्तान सीमा के नजदीक) और पेशावर तक पहुंचा दिया था। इसके पूर्व रघुनाथराव द्वारा 1757 में दिल्ली के युद्ध में रोहिलाओं को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार जमा लिया गया था और आलमगीर द्वितीय, नाम का ही बादशाह शेष रह गया था। मराठे अब निर्विवाद रूप से भारत की सबसे बड़ी शक्ति थे। पेशावर से लेकर बंगाल तक और दक्षिण में मालाबार तथा तमिलनाडु तक मराठों का एकछत्र अधिपत्य हो चुका था।
इस पृष्ठभूमि में, 1761 में पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ, जिसमें अफ़गानी आक्रांता अहमदशाह अब्दाली को मराठे पराजित नहीं कर सके। दोनों सेनाओं को भारी हानि का सामना करना पड़ा। अब्दाली को उस युद्ध के बाद अफगानिस्तान लौटना पड़ा वहीं मराठे भी एक तरह से दिल्ली के दक्षिण तक सिमट गए। ऐसी स्थिति में दक्षिण में निज़ाम को अपनी खोई हुई जमीनें पुनः अधिपत्य में लेने का अवसर नजर आया और वह अपनी सेनाओं के साथ औरंगाबाद की ओर चल पड़ा। रास्ते ने गोदावरी नदी को पार करना था। निजाम की सेना का एक हिस्सा गोदावरी पार कर उत्तरी किनारे पर पहुंच गया जबकि तोपखाने सहित दूसरा हिस्सा, जिसका नेतृत्व विट्ठल सुन्दर कर रहा था, गोदावरी के दक्षिण में ही था।
गोदावरी के दक्षिण के इसी स्थान का नाम राक्षसभुवन है। मराठों के युवा और तेजस्वी पेशवा माधवराव ने परिस्थितियों का सही आकलन किया था। वे जानते थे कि यदि निज़ाम को रोका नहीं गया तो यह मराठों के वर्चस्व के लिए बड़ी चुनौती होगी। अपने काका, रघुनाथराव के साथ उन्होंने अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए निजाम की सेना को राक्षसभुवन के नजदीक घेर लिया। 10 अगस्त 1763 को भीषण युद्ध के दौरान विट्ठल सुन्दर मारा गया। निज़ाम की सेनाओं का निर्णायक और दारुण पराभव हुआ। 50 लाख रुपए सालाना के उत्पन्न वाले क्षेत्र पर मराठों का अधिपत्य हो गया।
राक्षसभुवन की विजय, मराठों के पानीपत में जख्मी हुवे मनोबल के लिए मरहम के समान सिद्ध हुई। दिल्ली का बादशाह पहले ही शक्तिहीन हो चुका था। दक्षिण में सिर्फ निज़ाम और हैदर ही चुनौती के रूप में शेष थे। राक्षसभुवन की पराजय से निज़ाम कभी उबर नहीं पाया। आने वाले वर्षों में माधवराव पेशवा के नेतृत्व में हैदर को भी जड़ी हवांती और रतिहल्ली आदि की लड़ाइयों में पराजित कर कमजोर कर दिया गया था।
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जब मराठा शक्ति अपने शीर्ष पर थी तब उनके पराक्रमी पेशवा माधवराव का मात्र 26 वर्ष की उम्र में ही तपेदिक (टी बी) के रोग की वजह से देहान्त हो गया। अचानक मराठा साम्राज्य नेतृत्वविहीन हो गया। बंगाल से पैर पसार रहे अंग्रेजों के लिए यह विधि रचित सुअवसर था। मराठे मुगलों को पराजित कर अप्रासंगिक बना चुके थे, पुर्तगालियों को भारत की मुख्य भूमि से खदेड़ चुके थे और दक्षिण में हैदर और निजाम आदि को भी निष्प्रभावी कर चुके थे। एक तरह से पूरे भारत पर भगवा फहराने के पश्चात मराठा साम्राज्य नेतृत्व विहीन हो गया था। इस शून्य को भरने के लिए अंग्रेज सही समय पर सही स्थान पर थे।
शेष इतिहास है।
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
“स्वामी” मराठी उपन्यास में यह प्रसंग अप्रतिम तरीके से जीवंत किया गया है।