पिताजी शिक्षक थे।
गांव में वे सिद्धांतवादी शिक्षक के रूप में प्रसिद्ध थे। इस छवि के पीछे उनके कुछ सिद्धान्त थे जिनका वे शिद्दत से पालन करते थे। वे अंग्रेजी पढ़ाते थे। अच्छे वक्ता थे, साहित्य प्रेमी थे। हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी तीनों भाषाओं में पुस्तके पढ़ते थें। एक प्रकार से भाषा पढ़ाने के लिए आदर्श व्यक्ति थे साथ ही स्वभाव से निर्भीक और अनुशासन प्रिय थे।
उनके सिद्धांतों में एक था, समय की पाबंदी! वे विद्यालय ठीक समय पर ही पहुंचते थे। यदि घर से निकलने में पांच मिनट भी विलम्ब हो जाए तो अर्ध दिवसीय अवकाश ले लेते! किसी के कहने या टोकने की बात ही नहीं थी, परन्तु यह उनका स्वयं के संतोष का विषय था।
बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते थे। वे एक बैच में दो ही बच्चों को पढ़ाते थे। 70-80 के दशकों में जब वेतन अत्यन्त सीमित थे और खर्च पूरे नहीं पड़ते थे तब भी वे अतिरिक्त आय के लोभ में ज्यादा बच्चों को ट्यूशन नहीं पढ़ाते थे। Two is company, three is crowd यह उनका ध्येय वाक्य था। वे कहते भीड़ को पढ़ाने के लिए तो विद्यालय है ही!
वे सिर्फ बोर्ड परीक्षा के विद्यार्थियों को ही घर पर ट्यूशन देते थे। विद्यालय में अंग्रेजी के वे अकेले ही व्याख्याता थे। जाहिर है, स्थानीय परीक्षा वाली कक्षाओं के लिए वे ही प्रश्नपत्र बनाते और वे ही विद्यार्थियों की उत्तरपुस्तिकाओं का मूल्यांकन कर उन्हें अंक देते। ऐसे में यह आरोप लग सकता था कि उनके यहां पढ़ने आने वाले विद्यार्थी को अधिक अंक मिलते हैं! इससे बचने के लिए वे उन कक्षाओं के विद्यार्थियों को घर पर पढ़ाते ही नहीं थे।
जिन्हें घर पर पढ़ाते भी, उन्हें नियत पाठयपुस्तक नहीं पढ़ाते। क्योंकि वह तो विद्यालय में पढ़ाता ही हूं, अगर घर पढ़ाने लगा तो बच्चा विद्यालय में ध्यान नहीं देगा या अनुपस्थित रहेगा। घर पर वे व्याकरण पढ़ाते ताकि बच्चे को भाषा आने लगे।
उन दिनों शैक्षणिक सत्र 1 जुलाई से प्रारंभ होता था। वे ट्यूशन भी जुलाई माह में ही स्वीकार करते। उनका सोचना था कि बाद में आने वाले बच्चे भाषा सीखने नहीं, सिर्फ उत्तीर्ण होने आते हैं। वे इसे गंभीरता के अभाव के रूप में देखते थे। उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक निबन्ध लिखवाना या पत्र लेखन आदि भी उनकी नजर में घर पर पढ़ाने की परिभाषा के बाहर था। ये विद्यालय में पढ़ाने के विषय थे।
अब इन सारे नियमों के चलते कुछ गिने चुने बच्चे ही ट्यूशन के लिए हमारे घर आ पाते थे। कभी-कभी, कुछ समय बाद, उनमें से किसी बच्चे की वे फीस माफ कर देते। दरअसल वे उसकी सीखने की क्षमता परख लेते। उन्हें समझ आ जाता था कि ये कुछ सीख नहीं पाएगा। जो मुझसे सीख नहीं पाएगा, उससे फीस क्या लेना? इसके उलट, कुछ बच्चे जो उन्हें विद्यालय में नजर में आ जाते, जो मेधावान होते परन्तु निर्धन होते, उन्हें वे बगैर फीस के घर पर पढ़ाते!
यदि घर कोई मेहमान आ जाए या किसी और कारण से वे पढ़ाने की स्थिति में न हो, तो मुझे घर आने वाले बच्चों के यहां भेज कर सूचित करवाते कि आज छुट्टी है। बच्चे चल कर आएं और फिर उन्हें कहा जाए कि आज छुट्टी है यह उन्हें पसंद नहीं था। हालांकि कईं बार बच्चे नहीं आते और उसकी पूर्वसूचना भी नहीं देते। ऐसा होने पर वे बहुत झुंझलाते।
अनुशासनप्रिय होने की वजह से यदि परीक्षा कक्ष में उनकी ड्यूटी हो तो किसी भी छात्र के लिए नकल करना असंभव था। इस संदर्भ में वे कुख्यात थे। तथाकथित गुंडे समझे जाने वाले छात्रों को भी उन्होंने कभी बक्शा नहीं। एक बार एक ऐसा ही दुस्साहसी व्यक्ति अपने भतीजे के अंक बढ़वाने उनके पास आया। स्थानीय परीक्षा की कक्षा थी। उत्तर पुस्तिकाएं हमारे घर पर ही पड़ी हुई थी। उन्होंने उसकी उत्तर पुस्तिका निकाली। जांची। उसे 50 में से कुछ 3-4 अंक ही आ रहे थे। उत्तीर्ण होने के लिए शायद 15 अंक लगते थे। उसी की गुजारिश थी। पिताजी अड़ गए। बोले अगर बढ़ाए तो पूरे 50/50 ही दूंगा। पूरे गांव को पता चलने दो की मैने अंक बढ़ाए हैं। बेचारे दुस्साहसी व्यक्ति ने चुपचाप लौट जाना ही उचित समझा!
अंतिम दो चार वर्षों में उन्होंने अपने एक साथ दो से अधिक बच्चों को नहीं पढ़ाने के नियम को थोड़ा शिथिल कर लिया था। एक तरह से मित्रों और पालकों के आग्रह की वजह से। दरअसल 90 के दशक के मध्य तक आते आते अंग्रेजी एक तरह से अनिवार्यता बनने लगी थी। गांव में कोई और अंग्रेजी पढ़ाते नहीं था। इसलिए उनका अधिक विद्यार्थियों को पढ़ाना एक तरह से जरूरी हो गया था। बाकी सारे सिद्धांतों का उन्होंने जीवन भर पालन किया। ये नियम सामान्य जीवन में भी थे। वे दिन में सिर्फ दो बार ही अन्न ग्रहण करते। बीच में प्रसाद तक नहीं लेते। वह भी उन्हें भोजन की थाली में ही परोसना होता था। रोज सुबह करीब 5 किमी घूमने जाते थे। साल में लगभग 360 दिन तो जाते ही होंगे! सम्भवतः ऐसे ही अनुशासन की वजह से जीवन के अंतिम दिन तक भी स्वस्थ और तंदुरुस्त रहे।
मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि आज भी जब में अपने गांव सोनकच्छ जाता हूं तो उन्हें याद करने वाले लोग मिल जाते हैं। उन्हें गुजरे इस जनवरी में 26 वर्ष हो जाएंगे। यह एक लम्बा कालखंड है। इतने समय में अक्सर लोग भुला दिए जाते हैं, परन्तु उनके बारे में आज भी कईं लोग बड़ी शिद्दत से अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं। इन सब सिद्धांतों और अनुशासन के बीच एक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि उन्हें अपने पेशे से प्रेम था। वे समर्पित शिक्षक थे। चाहते थे कि बच्चे उनसे सीखे। अध्यापन उनके रोम रोम में बसा था। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि उस समय वे अकेले ही ऐसे शिक्षक नहीं थे। कईं अन्य शिक्षक भी इसी तरह अध्यापन से प्रेम रखते थे और बच्चों के भविष्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे।
आज शिक्षक दिवस पर उन सभी समर्पित शिक्षकों का पुण्य स्मरण🙏🙏🙏
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
05/09/2025
