श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, मजदूर आंदोलन के पुरोधा …

#राष्ट्रीय_स्वयंसेवक_संघ ने विगत सौ वर्षों में जो विलक्षण व्यक्तित्व समाज को दिए हैं, उनमें से एक जगमगाता नाम श्री #दत्तोपंत_ठेंगड़ी का है।

मैं यह प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दूं कि अब तक संघ और ठेंगड़ी जी दोनों को ही मैं सतही स्तर पर ही जान समझ पाया हूं। जो थोड़ा कुछ पढ़ा, सुना और जाना है उस से जो धारणा बनी है, वही साझा कर रहा हूं।

ठेंगड़ी जी भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता थे। आप के द्वारा, 1955 में भोपाल में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की गई। माना जाता है कि आदरणीय #गुरुजी_गोलवलकर द्वारा आपको #मजदूर_संघ स्थापना की प्रेरणा दी गई थी। गुरुजी की प्रेरणा और ठेंगड़ी जी के संगठन कौशल से #भारतीय_मजदूर_संघ ने आगामी दशकों में  ऐसा कार्य किया जो वैश्विक इतिहास में ‘न भूतो न भविष्यति’ कहलाएगा। दत्तोपंत जी के भगीरथ प्रयत्नों के महत्व को समझने के लिए पहले उस युग में मजदूर संगठनों की भूमिका को समझना आवश्यक है।

1950 के दशक में पूरा विश्व पुनर्निर्माण के दौर से गुजर रहा था। विश्व उसके पूर्व के 30 वर्षों में दो विश्वयुद्धों की विभीषिका झेल चुका था। यूरोप और जापान के शहर खंडहरों में तब्दील हो चुके थे। दूसरी ओर एशिया और अफ्रीका के देश, शताब्दियों की दासता और औपनिवेशिक शोषण के दौर से बाहर निकल रहे थे। विश्व व्यवस्था में तेजी से बदलाव हो रहे थे। इस बीच 1917 में रूस में मार्क्सवाद के लाल परचम के तले साम्यवादी क्रांति का बिगुल बज चुका था। सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप के अधिकांश राष्ट्र, चीन और अन्य कईं देशों पर साम्यवादी शक्तियां सत्तासीन हो चुकी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में जोज़फ स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने हिटलर की नाज़ी जर्मनी को पराजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बदले में पूर्वी यूरोप पर अपना शिकंजा कस लिया था। साम्यवाद के मूल में dictatorship of the proletariat यानी कि मजदूरों की तानाशाही की परिकल्पना थी। विश्वयुद्ध के पश्चात पुनर्निर्माण के दौर में मजदूरों की भूमिका का महत्व चरम पर था। विशाल उद्योगों को स्थापना हो रही थी, खंडहर बन चुके शहरों का पुनर्निर्माण हो रहा था, नए नगर बसाए जा रहे थे, आयुधों का निर्माण बढ़ रहा था, वाहन, इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण और इस्पात जैसे नए उद्योग विकसित हो रहे थे। ऐसी परिस्थिति में मजदूरों की भूमिका अति महत्वपूर्ण होती जा रही थी।

ऐसी परिस्थितियों में साम्यवादी शक्तियां अत्यन्त सक्रिय हो कर अपने आप को मजदूरों की हिमायती सिद्ध कर, उन्हें नेतृत्व प्रदान कर रही थी। मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए साम्यवादी शक्तियों द्वारा पूरे विश्व में मजदूर संगठनों की स्थापना की गई थी जिनका परोक्ष संचालन सोवियत संघ और चीन से होता था। ये मजदूर संगठन, जिन्हें सामान्य बोलचाल में ट्रेड यूनियन कहा जाता था, उद्योगपतियों को पूंजीवादी शोषक बता कर उनके और मजदूरों के बीच सतत संघर्ष को हवा देते थे। आज की युवा पीढ़ी, ट्रेड यूनियन शब्द से संबंधित उपद्रव और आतंक की कल्पना भी नहीं कर सकती। मजदूरों के अधिकारों की आड़ में ये संगठन सदैव हिंसक भूमिका में ही रहते थे और जब तब कारखानों में हड़तालें घोषित कर काम काज ठप्प कर देते थे। सड़कों पर चक्का जाम, बाजार बन्द, आगजनी, तोड़फोड़ मारपीट, छुरेबाजी आदि इस संघर्ष के अनिवार्य घटक थे। अधिकांश देशों का सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व भी इन साम्यवादी शक्तियों से अनुग्रहित रहता था और ट्रेड यूनियनों की गतिविधियों को नजरअंदाज करता रहता था।

भारत में #कलकत्ता, #कानपुर के उद्योग, #मुंबई और #इन्दौर जैसे शहरों की कपड़ा मिलों सहित सैकड़ों उद्योग इन ट्रेड यूनियनों की हिंसा और अनाचार की शिकार हो कर बन्द हो रही थी। ट्रेड यूनियनों की राजनीति का आधार ही हिंसा और उपद्रव था। मिल के मजदूरों को मिल मवाली कहा जाना लगा। उद्योग जगत में ट्रेड यूनियन और उनके नेताओं का आतंक बना रहता था। निजी उद्योगों से लेकर रेल जैसे सरकारी तमाम सरकारी विभागों में ट्रेड यूनियन नियमित कार्यों को प्रभावित करती रहती थी। यूनियन से जुड़े मजदूर अपनी शर्तों पर काम करते थे और यदि किसी पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती तो तुरन्त हड़ताल की घोषणा कर कामकाज ठप हो जाता था। ट्रेड यूनियनों का शीर्ष नेतृत्व विदेश में बैठी साम्यवादी शक्तियों को अपना सरताज मानता था और मजदूरों के हितों को देश के हित से ऊपर रखता था।

ऐसे अत्यन्त विस्फोटक और खूनी संघर्ष के माहौल में दत्तोपंत जी द्वारा भारतीय मजदूर संघ की स्थापन की गई। मजदूर संगठनों के विश्व में भारतीय मजदूर संघ (#बीएमएस) एक अनोखी पहल थी। जहां साम्यवादी मजदूर संगठनों की दिशा  “चाहे जो मजबूरी हो, हमारी मांगें पूरी हो” जैसे नारों से तय हो रही थी, वहीं बीएमएस द्वारा “देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम” जैसे नारों के माध्यम से राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखा गया। पूरे विश्व में साम्यवादी मजदूर संगठनों को ऐसी चुनौती शायद ही कभी मिली हो। दत्तोपंत जी को यह पूरी तरह स्पष्ट था कि मजदूरों का हित, राष्ट्र और उद्योगपति की बलि चढ़ा कर नहीं साधा जा सकता। बीएमएस द्वारा उद्योगपतियों से द्वेष और शत्रुता के स्थान पर सहयोग और सहभागिता का संबंध बनाने पर जोर दिया। परिणामतः हड़तालों की बजाय टेबल पर समझौतों के माध्यम से हल निकलने लगे। मजदूरों को अधिकारों के साथ साथ कर्तव्यों से भी परिचित किया जाने लगा। इस बदले हुए माहौल की वजह से उद्योग स्थापित होने लगे, निजी निवेश में बढ़ोतरी हुई और विदेशी कंपनियां भी भारत आने लगी। इस बीच भारत द्वारा समाजवादी बन्द अर्थव्यवस्था के स्थान पर मुक्त अर्थव्यवस्था को अंगीकार कर लिया गया जिससे समृद्धि के नए द्वार खुलने लगे।

आज भारत में IT उद्योगों में एक एक कंपनी में लाखों कर्मचारी कार्यरत है। ट्रेड यूनियनों के युग में यह सम्भव ही नहीं हो पाता। अब शनै शनै भारत उत्पादन इकाइयों को भी  आकर्षित कर रहा है। मोबाइल फोन और रक्षा संबंधी कईं इकाइयां भारत में स्थापित हो निर्बाध उत्पादन कर रही है। शीघ्र ही #सेमी_कंडक्टर निर्माण की इकाइयां भी उत्पादन प्रारंभ करने जा रही हैं। आज किसी भी उद्योग को मजदूर संगठनों को ले कर किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता है।

मजदूरों और उद्योगपतियों के बीच आज जो सामंजस्य नज़र आता है, उसे स्थापित करने में  भारतीय मजदूर संगठन और दत्तोपंत जी की भूमिका अत्यन्त अहम रही है। वस्तुतः आज हमें दत्तोपंत जी का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने ट्रेड यूनियनों की गतिविधियों में राष्ट्र प्रथम की भावना को स्थापित किया। उनके इस विलक्षण योगदान के लिए उन्हें #भारत_सरकार की ओर से #पद्मभूषण के सम्मान से विभूषित करने की घोषणा भी की गई थी परन्तु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्र हित में निस्वार्थ कर्म करते रहने की उच्चतम आदर्शों की संस्कृति के अनुरूप उन्होंने इस सम्मान को स्वीकार नहीं किया।

आज 10 नवंबर को दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की जन्मतिथि के अवसर पर इस कर्मयोगी को हृदय से आभार तथा सादर नमन।

श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
10/11/2025

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