होलोकास्ट, सावरकर और भारत का सांस्कृतिक संघर्ष

द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व और दौरान हिटलर की नाज़ी टुकड़ियों द्वारा यहूदियों पर जो अमानवीय और अविश्वसनीय अत्याचार किए गए वे इतिहास में दर्ज हैं ही और अभी अभी तक यत्न शिविर से जीवित बच निकले “भाग्यशाली” अपने अनुभव सुनाने के लिए उपलब्ध भी थे। यहूदियों के संबंध में हिटलर के “अन्तिम उपाय” (final solution) की वजह से, माना जाता है, 60 लाख यहूदी कत्ल कर दिए गए। औश्वित्ज और डचाऊ जैसे स्थानों के यातना शिविरों में लाखों यहूदियों को पहले अमानवीय स्थितियों में शिविरों में रखा गया और फिर गैस चैंबर में डाल कर उन्हे सामूहिक रूप से मार डाला गया। यहूदियों के इस नरसंहार को ही होलोकास्ट (holocaust) कहा जाता है।

आधुनिक मानव इतिहास के इस सबसे भयावह नरसंहार पर हजारों पुस्तके लिखी गई, शोध किए गए, सैकड़ों फिल्मे बनाई गई, यातना शिविर से जीवित बच निकले लोगों के अनुभव दर्ज किए गए, अनेक मारे गए कैदियों की डायरियां ढूंढ कर प्रकाशित की गई, हिटलर की नाज़ी सरकार के कागजातों से भी इन हत्याओं की “व्यवस्था” के सबूत प्राप्त हुए और औश्वित्ज जैसे यातना शिविरों को इस भयावह इतिहास के स्मारकों के रूप आज भी अक्षुण्ण रखा गया है।

तमाम सबूतों के बावजूद, पिछले कुछ दशकों से व्यापक स्तर पर इस नरसंहार को झुठलाने के प्रयास भी जारी हैं। एक वर्ग है जो कहता है कि या तो ऐसा कोई नरसंहार हुआ ही नहीं या हुआ तो उसमे इतनी जन हानि नहीं हुई जितनी बढ़ा चढ़ा कर बताई जाती है और यह भी कि हिटलर के अन्तिम उपाय का आशय यहूदियों को देश निकाला देना था न कि उन्हें कत्ल कर देना। यह वर्ग यहूदी नरसंहार के तमाम सबूतों को दरकिनार कर अपने कुतर्क द्वारा यह प्रतिपादित करने का प्रयास करते हैं कि यहूदी नरसंहार एक दुष्प्रचार भर है।

इतिहास की सबसे बड़ी समस्या यही है कि यदि एक बड़े और प्रभावशाली वर्ग द्वारा सुसंगठित तरीके से इसकी घटनाओं को विकृत और भ्रामक रूप से पढ़ाया जाना प्रारंभ कर दिया जाए तो कुछ दशकों में आने वाली पीढ़ियों के लिए ये भ्रामक और विकृत वर्णन ही तथ्य बन जाते हैं। इस वजह से यूरोप के अधिकांश देशों ने holocaust denial (यहूदी नरसंहार को झुठलाना) को प्रतिबंधित कर एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया है। अर्थात इन देशों में, जिनमें फ्रांस, इटली, रोमानिया आदि कईं देश शामिल है, यदि कोई व्यक्ति यहूदी नरसंहार के अस्तित्व को नकारता है या उस पर प्रश्न खड़े करता है तो उस पर मुकदमा चला कर उसे दण्डित किया जा सकता है।

इन नियमों का उद्देश्य इतना ही है ऐतिहासिक नकारात्मक घटनाओं की जानकारी भी ज्यों की त्यों अगली पीढ़ी तक पहुंच सके। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में कोई उन्हे झुठलाने का प्रयास न करें और उनके दोषियों को सन्देह का लाभ न मिलने दे।

विगत कुछ दशकों से भारत में भी इसी प्रकार के इतिहास को झुठलाने के कुत्सित प्रयास जारी हैं। चाहे वीर सावरकर को माफीवीर कहना हो, बाजीराव प्रथम को जातिवादी कहना हो, भारत को सदा से एक अशिक्षित देश बताना हो, हमारे प्राचीन मन्दिरों के अस्तित्व को नकारता हो, हमारी अल्पकालीन कुप्रथाओं को सनातन धर्म का अभिन्न हिस्सा बताना हो, हम पर विदेशी आक्रांताओं द्वारा किए गए जुल्म हो, इस प्रकार के अनेक विषयों के सन्दर्भ में इतिहास को या तो छुपाया जाता है, या अस्तित्व को ही झुठलाया जाता है, या भ्रामक वर्णनों से तथ्यों को बदल दिया जाता है।

यहूदियों का नरसंहार तो बहुत छोटे कालखंड में (1939 से 1945) बहुत कम दशकों पूर्व हुई घटना है। उसे झुठलाना आसान नहीं था। फिर भी तथाकथित विकसित राष्ट्रों ने, जो अभिव्यक्ति की आजादी का झण्डा फहराएं रखते है, इन प्रयासों पर प्रतिबन्ध लगा दिए हैं। इस तुलना में भारत के इतिहास का कालखण्ड हजारों वर्षों का है तथा इन हजारों वर्षों में समाज असंख्य उतर चढ़ाव से गुजरा है। कईं घटनाएं सिर्फ कथा कहानियों या लोक कथाओं के माध्यमों से ही पीढ़ी दर पीढ़ी कही सुनी जा रही है। ऐसी स्थिति में इतिहास को आसानी से विकृत किया जा सकता है और बहुत हद तक किया भी जा रहा है।

बेहतर होगा कि हमारे यहां भी कुछ घटनाओं, प्रथाओं, रीति रिवाजों, परम्पराओं आदि को सूचीबद्ध कर उनके प्रामाणिक संस्करण को अधिकृत किया जाए और उन्हें झुठलाने के प्रयासों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए। हमारे ऐतिहासिक तथ्यों को अक्षुण्ण रखने के लिए सार्थक प्रयासों की निश्चित ही आवश्यकता है।

श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
02/04/2024

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