कृष्ण की दृष्टि: धर्म नहीं, विजय का युद्ध

कृष्ण जन्माष्टमी की सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं।

भगवान श्रीकृष्ण को पूर्णवतार माना गया है। व्यावहारिक लोक में उन्हे मनुष्य के श्रेष्ठतम स्वरूप के रूप में देखा जाता है। किशोरावस्था में वे रास लीला में रत हो सकते हैं तो कालिया वध भी कर सकते हैं, अपनी बांसुरी से समूचे गोकुल को मंत्रमुग्ध कर सकते हैं तो चाणूर जैसे भीमकाय पहलवान का मर्दन भी कर सकते हैं, वे अक्षोहिणी सेना खड़ी कर सकते हैं तो हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा कर युद्ध में मात्र सारथी के रूप में भाग ले सकते हैं, क्रोधित गांधारी का श्राप स्वीकार कर सकते हैं तो हताश अर्जुन को बीच रणक्षेत्र में गीता का ज्ञान देकर विषाद मुक्त भी कर सकते हैं ।

कृष्ण की कुछ करने या न करने की सीमाएं काल मान परिस्थिति के अनुरूप होती है। वे स्वयं को ऐसी कठोर सीमाओं में कैद नहीं करते जिससे स्वयं का ही अहित संभव हो सके। उनकी नीतियों का केंद्र सिर्फ और सिर्फ अपने समाज का हित रहा है, किन्ही उच्च आदर्शों का पालन नहीं। कृष्ण की यह दृष्टि ही उनसे वचन भंग भी करवा लेती है और उन्हें रणछोड़ भी बना देती है। परन्तु आने वाली सदियों में कृष्ण के संदेशों को जिस तरह से परिभाषित कर नईं पीढ़ियों तक संप्रेषित किया गया उसमें केंद्र इस दृष्टि से हट कर धर्म के अव्याहरिक उच्च आदर्शों तक सिमट गया। महाभारत, जिसका सार ही कृष्ण की व्यावहारिक दृष्टि है, की कथा को भी जिस प्रकार से नई पीढ़ियों को पढ़ाया गया, उसने हमारे देश को बहुत हानि पहुंचाई है।

महाभारत धर्म युद्ध कह कर पढ़ाया गया। बताए गया कि कृष्ण यानी भगवान धर्म और सत्य के साथ थे इसलिए पांडवों की विजय हुई। परन्तु यदि महाभारत की घटनाओं का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि कृष्ण धर्म युद्ध नहीं लड़ रहे थे, वे तो युद्ध धर्म निभा रहे थे! और युद्ध का एक ही धर्म है …विजय.. सम्पूर्ण और निश्चित विजय। पूरी महाभारत में कृष्ण ने इसी युद्ध धर्म का पालन किया है। विजय प्राप्त करने के लिए उन्होंने उन सभी युक्तियों का बेधड़क प्रयोग किया जिन्हे धर्म युद्ध की सीमा में अनुचित माना जाता था।

कौरवों को शक्तिविहीन करने के लिए उन्होंने कर्ण को उसके जन्म की कथा बता कर उससे पांच में से चार पांडवों की प्राणरक्षा का वचन ले लिया। पितामह भीष्म को पराजित करने के लिए शिखंडी का उपयोग किया और गुरु द्रोण को अश्वथामा की मृत्यु का अर्ध सत्य बता कर उनका अन्त करवा दिया। जयद्रथ का अन्त करने के लिए सूर्यग्रहण के ज्ञान का उपयोग किया और कर्ण के निहत्थे होते हुए भी अर्जुन से कह कर उस पर शर संधान कर उसका वध करवाया। जरासंध वध, दुर्योधन वध, घटोत्कच का उपयोग, बर्बरीक से उसका सर मांग लेना, इन सब घटनाओं के माध्यम से कृष्ण ने बारंबार एक ही मंत्र दिया है, युद्ध का एक ही धर्म है – विजय!

विजय प्राप्त करने की राह में कृष्ण ने नियमों, परंपराओं और आदर्शों को कहीं भी बाधा नहीं बनने दिया। कौरवों के पक्ष ने शुरू से ही नियमों और आदर्शों को ताक पर रखा हुआ था। द्रौपदी का वस्त्रहरण, अभिमन्यु का वध, लाक्षागृह का षडयंत्र, राज्य का हिस्सा देने से इन्कार आदि घटनाओं में वे पहले ही यह सिद्ध कर चुके थे कि अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए वे किसी भी स्तर पर जा सकते थे। हां, जहां उनका हित हो वहां वे पाण्डवों को आदर्शों या नियमों का स्मरण कराना नहीं भूलते थे। कर्ण जब निहत्थे अपने रथ का चक्का निकाल रहा था, तब वह अर्जुन को इन्ही आदर्शों का स्मरण कराता है कि वह एक निहत्थे भूमि पर खड़े व्यक्ति पर रथ पर आरूढ़ हो कर बाण कैसे चला सकता है? परन्तु कृष्ण अर्जुन को अपने कर्तव्य का स्मरण कराते हैं और बाण चलाने का आदेश देते हैं।
अनीति सदा ही बचने के लिए नीति का सहारा लेती है। हमारा इतिहास इस प्रकार की भूलों से भरा पड़ा है। कृष्ण ने अपने जीवन के माध्यम से यही सन्देश दिया है कि यदि शत्रु दुर्योधन हो तो उसे आदर्श और नियमों की आड़ में बचने का अवसर नहीं देना चाहिए। वहीं यदि मित्र सुदामा हो तो मित्र धर्म निभाने में आपका अहम, ऐश्वर्य या पद बीच में नहीं आना चाहिए।

एक बार पुनः कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
जय श्रीकृष्ण!

श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर

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