हिन्दू धर्म में कहा जाता है कि तेहतीस करोड़ देवी देवता हैं। केंद्र में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो हैं ही। फिर विष्णुजी के भी दशावतार हैं। लेकिन इन सब के बावजूद हिन्दू मानस में भगवान श्रीराम का एक विशेष स्थान है। उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक, हजारों वर्षों से श्रीराम की जनप्रियता अद्वितीय है। ऐसा राम चरित्र में क्या है, जो उन्हे सर्वप्रिय, सर्वव्यापी और सर्वश्रद्धेय बनाता है?
उत्तर में अयोध्या से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक का राम का प्रवास, उनके युद्ध कौशल और उनकी असामान्य वीरता से परिचित करवाता है। परन्तु भारत के गौरव शाली इतिहास में वीरता की अनेक गाथाएं रची गई हैं। असामान्य पराक्रम इतिहास में स्थान तो दिलाता है, परन्तु श्रीराम नहीं बनाता। पराक्रमी पुरुष किसी क्षेत्र विशेष में ही पूजे जाते हैं। उनकी लोकप्रियता सैंकड़ों पीढ़ियों की गहराई तक नहीं पहुंच पाती है। श्रीराम की विशेषता यही है कि वे समाज के अन्तिम छोर पर खड़े व्यक्ति के भी उतने ही आराध्य है जितने किसी प्रथम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के।
वस्तुत: श्रीराम एक जननायक थे। उनका पूरा जीवन जनहित कार्यों में बीता। जिस युग में प्रजातंत्र नहीं था, उस युग में भी उन्होंने अपने आप को जनहित के लिए समर्पित कर दिया था। उनका आम जन से सीधा संवाद था और उन्होंने आम जन के त्रास को हरा था। तपो वन में ताडका, सुबाहु और मारीच हो, पंचवटी में खर दूषण हो या लंका में रावण हो, ये सभी आम जनता और वनवासियों पर अत्याचार करने वाले और आतंक फैलाने वाले थे। माता सीता के अपहरण के निमित्त रावण वध भी दक्षिण के वनवासियों और जनजातियों के लिए आतंक से मुक्ति का अवसर था। राम ने स्वयं के राज्य के लिए या भू विस्तार के लिए युद्ध नहीं लड़ा, वे लड़े समाज के अन्तिम छोर पर खड़े व्यक्ति के लिए। इसलिए उन्होंने विजित राज्य भी सुग्रीव और विभीषण जैसों स्थानीय नेतृत्व को सौंप दिए।
जनहित को राम ने सर्वोपरि रखा। माता कैकई के मांगे वरदानों के कुचक्र में वस्तुत: दशरथ फंसे हुए थे। यदि राम उस समय वन गमन का निर्णय नहीं लेते तो क्या होता? भरत कैसा व्यवहार करते? क्या अयोध्या और उससे भी आगे आर्यावर्त का शक्ति संतुलन अक्षुण्ण बना रहता? रावण के राक्षस, तपोवन तक पहुंच कर आतंक फैला ही रहे थे। समुद्र किनारे से लेकर अयोध्या से सटे जंगलों तक रावण का आतंकवाद पैर पसार चुका था। पंचवटी जैसे स्थान पर खर दूषण चौदह सहस्त्र की सेना लेकर उस आतंकवाद को पोषित कर रहे थे। ऐसी स्थिति में यदि अयोध्या में राजगद्दी को लेकर कोई संघर्ष छिड़ जाता तो कौशल, मिथिला आदि सभी राज्य रावण के आतंक का मुकाबला करने में और कमजोर पड़ जाते, और राज्य में त्राहि त्राहि मच सकती थी।
जन हित को सर्वोपरि रखते हुए राघव ने स्वयं आतंक की जड़ की ओर जाने को प्राथमिकता दी। संभवतः उन्हें यह प्रचिति होगी ही कि उनका वानप्रस्थ, दंडक वन तक ही सीमित नहीं रहेगा। दंडक वन में प्रवेश रावण के आतंकी शिविरों के क्षेत्र में प्रवेश था और एक महती संघर्ष अटल था। इस निर्णायक युद्ध के द्वारा जहां आर्यावर्त की आम जनता को रावण के आतंक से बचाए रखना था, वहीं विंध्य पार के वनवासियों और जनजातियों को उसके आतंक से मुक्त करना भी था। इसलिए श्रीराम ने खोखली नैतिकताओं के परे जा कर जनता पर आतंक बरपा रहे ताडका, मारीच, खर, दूषण, बाली आदि का स्वयं संहार किया। ताडका और शूर्पनखा स्त्री थीं और स्त्रियां सामान्यतः अवध्य थीं, वहीं बाली को छुप कर मारना पड़ा। परन्तु जन हित सर्वोपरि था। नीति अनीति से भी परे था।
अहल्या, शबरी, निषादराज जैसे प्रसंग हो या दक्षिणी प्रायद्वीप की वानर, रीछ आदि जनजातियां हो श्रीराम ने सभी को गले लगाया, सभी को सम्मान दिया और सभी का रक्षण भी किया। यह श्रीराम का विलक्षण नेतृत्व था जिसने सामान्य वनवासियों को रावण जैसी महाशक्ति को ललकारने का विश्वास प्रदान किया। सफल नेतृत्व, स्वयं की वीरता में नहीं बल्कि सामान्य व्यक्ति में आत्मविश्वास भर देने में निहित है। सामान्य व्यक्ति को पराक्रम हेतु प्रेरित करना स्वयं के पराक्रम से कहीं अधिक जटिल और दुष्कर कृत्य है। श्रीराम ने इस कार्य को जिस स्तर पर संपादित किया वहीं उन्हें सामान्य मनुष्य से अवतार पुरुष बनाता है।
स्वाभाविक ही है कि सहस्त्राब्दियों पश्चात भी राम की जनप्रियता में कोई कमी नहीं आई है और आदर्श सुशासन की कल्पना को आज भी रामराज ही कहा जाता है।
आप सभी को रामनवमी कि अनन्त शुभकामनाएं। प्रभु श्रीराम का अनुग्रह सभी पर बना रहे
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर