प्रथा किसे कहेंगे?
निश्चय ही कोई ऐसी रीति या गतिविधि जो समाज के बड़े हिस्से में लम्बे समय से घटित हो रही हो, उसे ही हम प्रथा कह सकते हैं। उदाहरण के लिए भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष में पितरों को श्रद्धांजलि अर्पित करना एक प्रथा है। क्योंकि सदियों से समाज का अधिकांश हिस्सा इस रीति का पालन करता आ रहा है। निश्चित ही श्राद्ध पक्ष में पितरों को पूजना हमारी ‘प्रथा’ है।
परन्तु, बीते दशकों और सदियों में, एक सोची समझी रणनीति के तहत इस प्रथा शब्द का हिन्दू समाज के संदर्भ में बुरी तरह दुरुपयोग किया गया है। हिन्दू समाज आज विश्व का एक मात्र समाज है जो गत 10000 हजार से भी अधिक वर्षों से एक निरन्तर सांस्कृतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में बना हुआ है। इतने लम्बे इतिहास में समय समय पर समाज में कुछ अस्वस्थ रीतियां या परंपराएं विकसित हो जाती है। बहुधा, ये परम्पराएं किसी कुल, क्षेत्र या व्यावसायिक समूह तक ही सीमित रह जाती है। अर्थात, इनका प्रसार पूरे हिन्दू समाज में होता ही नहीं है। इसलिए इन्हें हिन्दू प्रथा कहना सर्वथा अनुचित तो है ही अन्यायपूर्ण है और हिन्दुओं को कलंकित करने का प्रयास है। कुछ महिलाओं के सती होने को प्रथा कह कर उसे हिंदुत्व का परिचय बना देना ऐसा ही एक कुत्सित प्रयास है।
यदि भारतीय इतिहास का अध्ययन किया जाए तो सती की घटना सदैव ही दुर्लभ रही। सती होना कभी भी अनिवार्यता नहीं थी। प्राथमिकता भी नहीं थी। जो महिलाएं सती होने की घोषणा करती थी, उन्हें ऐसा न करने के लिए ही प्रेरित किया जाता था। यह प्रचार कि महिलाओं को जबरन पति की चिता में धकेल दिया जाता था पूर्णतः आधारहीन और घड़ा हुआ विमर्श है। सती नहीं जाने पर उस स्त्री को अपमानित होना पड़ा हो या निष्कासन का सामना करना पड़ा हो, इसके भी कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलते। इसे दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है। यदि सती जाना वास्तव में ही प्रथा होती तो इसकी समाज में उपस्थिति नजर आती। आज ऐसे कितने परिवार हैं जिनके परिवारिक इतिहास में सती का उल्लेख है?
अत्यन्त नगण्य संख्या में ही सही, महिलाएं सती होती थी इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। यहां यह जानना भी आवश्यक है कि आखिर वे महिलाएं ऐसा क्यों करती थी? हिन्दू समाज में जन्म से ले कर मृत्यु तक सोलह संस्कार माने गए हैं जिनका पालन करना सभी का कर्तव्य है। इन कर्तव्यों में सती का कोई उल्लेख नहीं है। स्पष्ट है कि सती होना कोई धार्मिक या सामाजिक कर्तव्य नहीं था। पौराणिक युग में सती का कोई वर्णन नहीं है। वस्तुतः इस्लामी आक्रांताओं के आक्रमणों से पूर्व सती के उल्लेख है ही नहीं। जाहिर है सती होना कोई धार्मिक कृत्य न हो कर परिस्थितिजन्य मजबूरी थी।
दूसरा प्रश्न खड़ा होता है कि यदि यह सामान्य स्तर पर प्रचलित प्रथा नहीं थी, तो इसे प्रथा का स्वरूप किसने और क्यों प्रदान किया? इस सन्दर्भ में श्रीमती मीनाक्षी जैन की पुस्तक Sati: Evangelicals, Baptist Missionaries, and the Changing Colonial Discourse एक गहन अन्वेषण कर लिखा गया ग्रन्थ है। मीनाक्षी जी ने अपने अन्वेषण में यह पाया कि एक समय ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार और शोषण के माध्यम से भारत से विपुल धन अर्जित कर रही थी। इस दौरान मिशनरी संस्थाओं की घोषित नीति थी कि वे यूरोप के बाहर के समस्त समाजों को जाहिल समझते थे और इसे अपना उत्तरदायित्व समझते थे कि उन समाजों को ईसाई बनाकर उनका उद्धार किया जाय। इसी सोच के साथ वे भारत में भी अपनी गतिविधियां बढ़ाने लगे। ईस्ट इंडिया कंपनी को यह चेष्टा फ़िज़ूल और उनके वर्चस्व को चुनौती देने वाली महसूस हुई। उन्होंने इन मिशनरी संगठनों को भारत में प्रचार करने से रोक दिया।
परन्तु मिशनरी संगठन तो ईसाइयत के प्रचार के लिए संकल्पित थे। उन्होंने इंग्लैंड की संसद से अपने पक्ष में आदेश निकलवाने का निश्चय किया। इसके लिए उन्हें अंग्रेज सांसदों के समक्ष यह सिद्ध करना था कि भारतीय हिन्दू समाज अत्यन्त बर्बर और पिछड़ा हो कर उन्हें ईसाइयत में शामिल करना अत्यन्त आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए सती होने को प्रथा बता कर हिन्दू समाज को क्रूर और पाशविक कह कर प्रचारित किया गया और इसमें सुधार हेतु भारत जा कर ईसाइयत का प्रसार करने की अनुमति मांगी। अनुमति प्रदान कर दी गई और उसके साथ ही भारत में मिशनरी संगठन ईसाई मत के प्रसार हेतु आने लगे।
स्पष्ट है, सती को प्रथा बताना एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया था। राजा राममोहन राय जैसे भारतीयों का भी इस योजना में उपयोग किया गया। यहां तक कि ऋग्वेद की ऋचाओं में थोड़ा सा भाषाई हेर फेर कर यह भी कहा जाने लगा कि सती होना वेद सम्मत है। इन प्रयासों के द्वारा यह विमर्श प्रतिष्ठित कर दिया गया कि सती हिन्दुओं की प्राचीन और प्रचलित प्रथा थी। हिन्दू द्वेशियों द्वारा हिंदुओं को नीचा दिखाने और उन्हें हीन भावना से ग्रस्त रखने के लिए यह प्रचार निरन्तर चलता रहा। करीब डेढ़ सौ वर्षों में यह एक स्वीकृत विमर्श बन गया।
आज मीनाक्षी जैन जैसे अन्वेषकों की मदद से यह स्पष्ट किया जा रहा है कि सती एक यदा कदा घटित होने वाली घटना थी। न इसकी कोई सामाजिक अनिवार्यता थी और न ही कोई धार्मिक कर्तव्य। जिस भी प्रमाण में सती होने की घटनाएं हुई हैं वे भी मुख्यत: परिस्थितिजन्य ही थी। इस परिपेक्ष में सती को प्रथा कहना सिरे से अनुचित है और हिन्दुत्व को नीचा दिखाने का एक कुटिल प्रयास भर है।
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
25/08/2025
