क्या यौन सम्बन्धों के लिए सहमति की आयु कम की जानी चाहिए?

Age of consent …यानी सहमति की आयु! सहमति, यौन सम्बन्ध बनाने के लिए! 

भारतीय समाज की परिवार की अवधारणा के केन्द्र में विवाह का संस्कार है। भारतीय संस्कृति में विवाह, न सिर्फ दो व्यक्तियों को नजदीक लाता है, बल्कि दो परिवारों को, दो मोहल्लों को और यहां तक कि दो नगरों को भी जोड़ता है। विवाह के बन्धन में बंधने वाले व्यक्तियों के परिवारों के माध्यम से समाज में भी नए रिश्ते बन जाना आम बात है। स्त्री – पुरुष के शारीरिक सम्बन्धों के लिए प्राचीन काल से ही विवाह की शर्त मान्य रही है। युगों युगों से इस शर्त का पालन होता आया है। परन्तु विगत कुछ दशकों में आधुनिकता के नाम पर इन मूल्यों पर सतत, संगठित एवं सुनियोजित आघात किए जा रहे हैं। साहित्य, कहानियां, कविताएं, फिल्में, नाटक, विज्ञापन, टीवी सीरियल्स, OTT कार्यक्रम और इन सबसे ऊपर खिलाड़ियों और अभिनेताओं जैसे जननायकों की जीवन शैलियों के माध्यम से निरन्तर, विवाह पूर्व और विवाहेत्तर सम्बन्धों का सामान्यीकरण किया जा रहा है। 

60-70 के दशकों में फिल्म नगरी के नायक -नायिकाओं के किस्से पत्रिकाओं में छपना शुरू हुए। कौन किसके साथ रह रहा है, किसका किस से इश्क चल रहा है, कौनसी जोड़ी तलाक़ लेने की कगार पर है, इत्यादि साहित्य आम जनता तक पहुंचने लगा। राजकपूर-नर्गिस, धर्मेंद्र-हेमा, राजेश खन्ना-टीना मुनीम, आदि के अफसानों के चर्चे सरे आम होने लगे। नीना गुप्ता जैसी अभिनेत्री ने बगैर विवाह किए मां बनना स्वीकार किया और उनके इस कृत्य का, एक महिला के साहसिक निर्णय के रूप में प्रचारित कर, महिमामंडन किया गया। आने वाले वर्षों में, फिल्मों में ये रिश्ते आम होने लगे। नायिका, नायक से यह पूछने लगी कि क्या वह अब तक वर्जिन है? (फिल्म दिल से, प्रीति जिंटा और शाहरुख खान)। कुछ ही वर्षों बाद इंटरनेट और सोशल मीडिया का युग आ गया और यह फिल्मी जीवन शैली, घरों में छोटे छोटे बच्चों तक पहुंचने लगी। 

आज शहरों के युवा वर्ग में इन धारणाओं का पूरी तरह से सामान्यीकरण हो चुका है। लिव इन व्यवस्था, मध्यम वर्ग के युवाओं में अपनी पैठ बना चुकी है। पूरा प्रयास है कि इसे समाज में हर स्तर तक पहुंचा दिया जाए। इसके आगे LGBTQ का भी सामान्यीकरण करने के पुरजोर प्रयास चालू हैं। 

अब चूंकि यौन सम्बन्धों के लिए विवाह की अनिवार्यता समाप्त होती जा रही है, तब यह प्रश्न खड़ा होता है कि आपसी सहमति से यौन सम्बन्ध बनाने की विधि सम्मत उम्र क्या होनी चाहिए? भारत में 2012 तक यह उम्र 16 वर्ष थी। 2012 में तत्कालीन UPA सरकार द्वारा POSCO कानून बनाया गया और इसके तहत संसद में तमाम राजनीतिक दलों के नुमांइदों द्वारा, सहमति की उम्र को बढ़ा कर 18 वर्ष कर दिया गया। POSCO की सख्त धाराओं के अनुसार यदि कोई पुरुष 18 वर्ष से कम उम्र की किसी किशोरी से यौन सम्बन्ध बनाता है, तो उसे बलात्कार ही माना जाएगा। यदि सम्बन्धित युवती द्वारा सहमति प्रदान की भी गई हो तो ऐसी सहमति को शून्य ही माना जाएगा और पुरुष पर बलात्कार का मुकदमा चलाया जाएगा। 

सर्वोच्च अदालत की एक वरिष्ठ वकील इन्दिरा जयसिंह, जो अपने मुक्त विचारों के लिए जानी जाती है, को अचानक यह 18 वर्ष की सीमा परेशान करने लगी। कुछ ही दिनों पूर्व उनके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से यह गुजारिश की गई है कि सहमति की उम्र  18 से घटा कर 16 कर दी जाए। दरअसल, सहमति से बने सम्बन्धों के मामलों में भी 18 वर्ष से कम की उम्र होने पर बलात्कार का मामला बनता है और आरोपी पर POSCO की अत्यन्त सख्त धाराएं लागू हो जाती है। इन्दिरा जयसिंह को लगता है कि यह किशोर वय के बच्चों के साथ घोर अन्याय है और इस पर रोक लगाने के लिए यह उम्र कम करना आवश्यक है। 

( Supreme Court to hear matter on statutory age of consent for adolescents on November 12 – The Hindu https://share.google/t2ez9Mey9XP5UpUTq )

आश्चर्य तो यह है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस प्रार्थना को सुनवाई के लायक मानते हुए इस पर 12 नवम्बर को सुनवाई की तारीख घोषित की है और यह भी कहा है कि मामले के महत्व को देखते हुए इस पर लगातार सुनवाई की जाएगी जिससे कि शीघ्र निर्णय लिया जा सके। आज यह सर्वविदित है कि न्यायालयों में करोड़ों मामले वर्षों से लम्बित पड़े हैं। इनमें से कईं मामले देश और समाज के लिए महत्वपूर्ण होंगे परन्तु न्यायमूर्तियों को 16 साल की बच्ची के यौन सुख का मामला इतना महत्वपूर्ण लग रहा है कि अन्य सारे मामले किनारे कर पहले इस मामले पर लगातार सुनवाई की व्यवस्था दी है! 

ये कैसी मानसिकता है? ये कौनसी आधुनिकता है? ये उसी वर्ग के लोग है जिन्होंने कुछ दशक पूर्व गला फाड़ फाड़ कर बाल विवाहों का विरोध किया था। अब इन्हें उसी उम्र के बच्चों के लिए बगैर विवाह के यौन सम्बन्धों की सुविधा चाहिए! 16 साल की बच्ची, जो सामान्यतः कक्षा 10वीं में पढ़ रही होती है, उसके यौन सुख की इतनी चिंता क्यों है? अभी उसकी समझ ही क्या है? ऐसे सम्बन्धों की वजह से यदि वह गर्भवती होती है तो उस बच्ची के जीवन का क्या होगा? इन्दिरा जयसिंह POSCO की धाराओं से किसे बचाना चाहती हैं? न्यायमूर्ति इस मामले की सुनवाई के लिए इतने उतावले क्यों हो रहे हैं? 2012 में संसद के दोनों सदनों में जनप्रतिनिधियों द्वारा व्यापक बहस एवं गहन विचार विमर्श  के पश्चात, सहमति की उम्र को 16 से बढ़ा कर 18 किया गया था। क्या न्यायमूर्तियों को ऐसा नहीं लगता कि जिस विषय पर पूरे देश के जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्णय लिया गया है, वह अन्तिम है? क्या तीन न्यायाधीश, संसद के लगभग 800 सांसदों से बेहतर नीति निर्धारण कर सकते हैं? न्यायपालिका का दायित्व संसद द्वारा बनाए गए नियम कानूनों के आधार पर निर्णय देना और आवश्यकता पड़ने पर उनकी व्याख्या करना है। न्यायालय का कार्य नए नियम बनाना नहीं है। क्या ऐसा कोई भी प्रयास न्यायालय द्वारा सीमाओं का उल्लंघन नहीं माना जाएगा? 

पूर्व में भी सर्वोच्च न्यायालय ऐसे निर्णय दे चुका है जो हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से कतई मेल नहीं खाते और जिनकी वजह से समाज में अनैतिक आचरण को बढ़ावा मिलेगा। एक निर्णय में न्यायालय द्वारा यह व्यवस्था दी गई है कि यदि कोई स्त्री, अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के बच्चे की मां बनती है, तब भी उसके पति को ऐसे बच्चे को अपना नाम देना पड़ेगा! यह निर्णय इस वर्ष जनवरी में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश सूर्यकान्त द्वारा दिया गया था। 

इस प्रकार के निर्णयों का इतिहास देखते हुए यह प्रश्न सहज ही खड़ा होता है कि न्यायपालिका के कर्ता-धर्ता भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को शुष्क धाराओं के तले क्यूं दबने देते हैं? फिलहाल, यह आशा ही की जा सकती है कि न्यायालय इस अत्यन्त गैर जरूरी निवेदन को सिरे से ठुकरा कर “न्याय मित्र” इन्दिरा जय सिंह को भी अनुशासित करेगा। 

श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर 

01/11/2025

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